क्यों जरूरी है राम मंदिर ?

क्यों जरूरी है राम मंदिर ?
रामजन्मभूमि पर फैसला आने को है, पर यह अंतिम फैसला नहीं है। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के जफरयाब जिलानी ने पिछले दिनों एक बयान में कहा भी है कि अंतिम अदालत का अंतिम फैसला ही मान्य होगा। यानि जो भी पक्ष माननीय उच्च न्यायालय के फैसले से सहमत नहीं हो, वह अगली अदालत का द्वार खटखटा सकता है। अंतिम अदालत का फैसला भी मनमाफिक नहीं आया तो संसद के पास यह अधिकार सुरक्षित है कि वह कानून द्वारा अंतिम अदालत के अंतिम फैसले को पलट सके। ऐसा शाहबानो केस में हमने देखा ही है।
विश्व हिन्दू परिषद की मांग है कि रामजन्मभूमि – बाबरी मस्जिद विवाद का निर्णय अदालतें नहीं कर सकती, इसका समाधान लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद में ही संभव है, जहां पर जनता द्वारा जनता के लिए चुने हुए प्रतिनिधि ही बैठते हैं। परन्तु क्या वे प्रतिनिधि जो आलू – प्याज के भाव, गरीबी, बेरोजगारी, झौंपड़ पटटी के वोट बैंक और विकास के नाम पर वोट मांगकर संसद तक पहुंचते हैं, वे आजाद भारत के इस सर्वाधिक संवेदनशील मुद्दे पर गंभीर हैं ?
6 दिसम्बर 1992 को क्रुद्ध कारसेवकों ने बाबरी ढ़ांचे को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद से 17 साल बीत गये, लेकिन इन ‘प्रतिनिधियों’ ने इस विवाद का समाधान करने की दिशा में एक कदम की भी प्रगति नहीं की। सरकार ने मामला अदालत को सौंप दिया और निश्चिन्त हो गई । आजाद भारत में न्यायपालिका का जितना क्षरण कार्यपालिका और विधायिका ने किया है, उसके कारण न्यायपालिका पर जनता का विश्वास ही समाप्त हो चला है। ना तो न्यायपालिका और ना ही जनता, को यह विश्वास है कि न्यायपालिका जिस भी नतीजे पर पहुंचेगी ‘सत्ता’ उस निर्णय को मान ही लेगी और भारत में कानून के शासन को स्थापित किया जा सकेगा। दरअसल, आज तक सरकारों ने किसी भी मामले को अदालत में सौंपकर ‘विवाद को टालो और राज करो’ की नीति को ही विवादों से बचने का नुस्खा अपना रखा है, यही स्वतंत्र भारत के राजनेताओं का आजमाया हुआ पुराना पैंतरा है।
सत्ता, चाहे किसी भी दल की ही क्यों ना हो, वह सिर्फ ‘सरकार’ होती है और पांच साल में बदल जाने वाली सत्ता को स्थिर बनाये रखने के लिए हर ‘सरकार’ किसी भी नये नारे और नीति पर आश्रित होती है। चाहे वह 25 जून 1975 को लागू किया गया आपातकाल हो या ‘इंडिया शाइनिंग’। दोनों का ही हश्र एक सा ही है, जनता ने दोनों को ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। दुर्भाग्य से वर्तमान केन्द्र सरकार भी अपने पूर्ववर्ती सरकारों का ही अनुसरण कर रही है। जो हश्र उनका हुआ, उससे अलग इस सरकार का भी परिणाम नहीं रहने वाला है। लेकिन जब तक सत्ता हाथ में है, ये ‘सरकार’ कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि संसद में सहमति के लिए खड़े होने वाले आधे से ज्यादा हाथ इसी सरकार के साथ हैं, और जब हाथ से ही काम चलता है तो विवेक की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
अयोध्या में राम जन्म स्थान पर मंदिर बनाये जाने के विरोधियों के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हैं कि आजादी मिलने के 62 बरस बाद भी देश की बहुसंख्य जनता को विकास की बजाय मंदिर – मस्जिद के मसले में क्यों उलझना चाहिये ? जिस देश में एक तिहाई से अधिक आबादी गरीबी, भुखमरी, और बेरोजगारी से त्रस्त हो क्या वहां के जनसंगठनों और नागरिकों को यह शोभा देता है कि वे भारत के विकास के मार्ग को अवरूद्ध कर मंदिर – मस्जिद के लिए आपसी सौहार्द को बिगाडें और विश्व में तेजी से उभरती हुई आर्थिक ताकत को अपने ही हाथों से कमजोर करें ? निश्चित ही यह प्रश्न छोटे नहीं है, परन्तु जो लोग इस तरह के जुमले कसकर अयोध्या में राम जन्मस्थान पर मंदिर बनाये जाने का विरोध कर रहे हैं, उन्हैं भी एक छोटे से प्रश्न का जवाब देना ही चाहिये कि बिना स्वाभिमान और आत्मगौरव जागृति के यह आर्थिक तरक्की कितने दिन टिक पायेगी ? क्या हम ऐसा भारत चाहते हैं जो आक्रांताओं के स्मारकों को संरक्षण प्रदान करे और भारत को स्वतंत्र देखने की चाह में हंसते हंसते फांसी पर झूल जाने वाले भगतसिंह को आतंकवादी कहे।
जो लोग अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का विरोध कर रहे हैं, उन्हैं इस बात को तो समझना ही होगा कि भारत में राम के लिए मंदिर बनाने वाले लोगों और जगहों की कोई कमी नहीं है, लेकिन यह बात देश की रीति नीति और अंतरात्मा की है। प्रश्न यह भी है कि हम हमारी संस्कृति, सभ्यता और विरासत को नष्ट करने वाले हमलावरों को नकारने की हिम्मत रखते हैं या नहीं ? क्यों नहीं सारे राजनेता मिलकर इस सच्चाई को सामने रखते कि मात्र 300 मुगलों ने तोप और गाय को आगे रखकर भारत की साँस्कृतिक चेतना को कुचलने का अपराध किया था, आज जो पाकिस्तान और बंगलादेश सहित भारत में मुस्लिम दिखाई पड़ते हैं वे इन हमलावरों के आने से पहले इसी आर्यावर्त की महान संतानों के वंशज हैं। क्यों नहीं पूरे देश को यह बताया जाता कि जब जिन्ना के सामने घुटने टेकते हुए हमने भारत के विभाजन को स्वीकार किया था और मुस्लिमों के लिए पाकिस्तान का गठन किया था, तो भारत में रहने वाले मुस्लिमों ने पंडों, भाटों, रावों और अन्य वंशलेखकों के पास जाकर अपनी जडें खोजने और अपने गौत्र निकालने के प्रयास शुरू कर दिये थे। आखिर पूरे देश को यह क्यों नहीं बताया जाता कि भारत में उस समय रहने वाला एक एक मुसलमान चीख चीख कर कह रहा था कि हम हिन्दुओं की संतान हैं और हमारी उपासना पद्धति इस्लामिक है।
पूरे विश्व में भारत ही तो है जो सभी उपासना पद्धतियों को फलने फूलने का अवसर प्रदान करता है। जहां शैव, शाक्त, जैन, बुद्ध, सिख, पारसी समुदाय के लोग अपनी विभिन्न उपासना पद्धतियों के साथ इस देश में स्वाभिमान के साथ रह सकते हैं तो फिर वे कौन लोग थे जिन्होंने इस उपासना पद्धति को मजहब में बदलने का अपराध किया ? आखिर देश को यह जानने का अधिकार तो है कि 1947 में मृत हो चुकी मुस्लिम लीग इस देश में किन राजनेताओं की सत्ता पिपासा के कारण पुन: उठ खड़ी हुई ?
देश को यह भी जानना है कि किन हालातों में लोग ‘मेहतर’ बनाए गए। जिन शासकों ने इस देश के नागरिकों से मैला उठवाया, हजारों हजार नागरिकों का कत्लेआम कर दिया, अपनी हवस को पूरा करने के लिए हरम बनवाए, क्या वे हमलावर नहीं थे। क्या भारत में उन हमलावरों के नाम पर दिल्ली में बड़ी बड़ी सड़के नहीं हैं ? भारत में जिलों के नाम उन पर नहीं हैं ? उन हमलावरों की बर्बरता का सजीव चित्रण करती हुई मस्जिदें भारत की सांझी विरासत कैसे हो सकती हैं ? प्रश्न यह है क्या कोई शासक अपनी ही प्रजा पर इस तरह के जुल्म करता है? इस तरह के जुल्म तो हमलावर शासक करते हैं, जिनकी इच्छा होती है कि आम जनता उनकी बर्बता से घबराकर उनकी शरणागति स्वीकार कर ले और अपनी जान बचाने के लिए उन्हीं के पंथ और मजहब को स्वीकार कर ले।
तो क्या यह माना जाए कि आजाद भारत की सरकारें अपनी संतानों को यह बताना चाहती हैं कि जिन हमलावरों ने हमारी अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया, हमारे पूर्वजों को लूटा, उनकी हत्याएं कर दीं, हम उन हमलावरों को हमारी विरासत के नाम पर उदारमना होकर स्वीकार करें। हमारी संताने उन हमलावरों को कैसे संरक्षण दे सकती हैं ? राजनेताओं की जरूरत वोट है, और उसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, हमलावरों को पूज भी सकते हैं। लेकिन यह तय भारत की जनता को करना है कि वह इन हमलावरों को अपनी ‘विरासत’ माने या नहीं। बात सिर्फ अयोध्या में राम मंदिर बनाने की जिद की नहीं है, बात यह है कि हम आजादी के बाद से लेकर आज तक अपने देश की दशा और दिशा तय नहीं कर पाये। तो जो काम हमारे राजनेता नहीं कर पाये उसे ‘रामजी’ को ही पूरा करना पडेगा।
साभार कथन

Comments

  1. "आखिर देश को यह जानने का अधिकार तो है कि 1947 में मृत हो चुकी मुस्लिम लीग इस देश में किन राजनेताओं की सत्ता पिपासा के कारण पुन: उठ खड़ी हुई ?"

    kyu kya yeh desh musalmano ka nahi hai? bahut hi badhkau lekh hai. chauk par jaakar chillayein to abhi 1000 aadmi khada ho jayega aur dange shuru hone me der nahi lagegi.

    Deepak ji, aapne yeh lekh sahi se to padha hai na?

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  2. ram mandir jaroori nahi hai. desh aur deshwasiyon ka vikas aur smriddhi jaroori hai. aapke jaise log hi desh ko viklaang banate ja rahe hai

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