"आचरण और व्याकरण की तंग गलियों से गुजरते शब्द की सिसकी सुनी तुमने ?
सुनो ! संवेदना के सेतु से जाता हुआ वह हादसा देखो !!
बताओ लय-प्रलय के द्वंद्व के इस दौर में जो जन्मा है सृजन है क्या ?
फिर न कहना इस उदासी से कभी, ढह चुके विश्वास के टुकड़े उठाये --
दूर तक इस दर्द का विस्तार जिन्दगी के छोर का स्पर्ष करता है 
देख पाओ तो तुम भी देखो जिन्दगी के उस तरफ 
रात के बोझिल पलों में बूढ़े बरगद की टहनी जब खड़कती है तो चिड़िया काँप जाती है 
आचरण और व्याकरण की तंग गलियों से गुजरते शब्द की सिसकी सुनी तुमने ?

सुनो ! संवेदना के सेतु से जाता हुआ वह हादसा देखो !!
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