साभार


सहसा यह विश्वास ही नहीं होता कि आजाद भारत के राजनेता किस दुस्साहस के साथ जनता द्वारा उठाये गये मुद्दों को नकारने में लगे हैं। क्या भ्रष्टाचार के समर्थन या विरोध के बारे में भी कोई दो राय भी हो सकती हैं ? यह साफ साफ समझे जाने की आवश्यकता है कि भारत की जनता के लिये ना तो बाबा रामदेव महत्वपूर्ण हैं और ना ही अन्ना हजारे। उसके लिये महत्व इस बात का है कि वह तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी है और यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मुद्दे पर अपने पद को छोड़कर जनता के आव्हान में शामिल होते हैं तो भारत की जनता उन्हैं भी बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की तरह अपनी पलकों पर बिठा लेगी। अब यह तय मनमोहन सिंह को करना है कि उनमें अपनी ईमानदारी को साबित करने का दम है भी या नहीं।

केन्द्र सरकार जिस प्रकार से भ्रष्टाचार को नकार रही है, उसके लिये भ्रष्टाचार का जीता जागता उदाहरण आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 वाई0 एस0 आर0 रेड्डी के पुत्र जगनमोहन रेड्डी ने प्रस्तुत किया है। आगामी 8 मई को कड्डपा लोकसभा क्षेत्र के लिये होने वाले उपचुनावों के लिए जगनमोहन रेड्डी ने निर्वाचन आयोग को अपनी संपत्ति 365 करोड़ रूपये बताई है, जबकि 2009 में जब उन्होंने निर्वाचन आयोग को अपनी संपत्ति मात्र 77 करोड़ रूपये बताई थी। मात्र 23 महिनों में ही उनकी संपत्ति 5 गुना तक बढ़ गई । यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि स्व0 वाई0 एस0 आर0 रेड्डी कांग्रेस सरकार के ना केवल मुख्यमंत्री थे, बल्कि कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के विश्वासपात्रों में से भी एक थे। उनकी आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके पुत्र को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नहीं बनाया इसीलिये उन्होंने कांग्रेस को छोड़कर नइ पार्टी बना ली। इसके विपरीत दूसरी तरफ भारत के संभ्रांत नागरिक हैं जिनके द्वारा दिये गए आयकर से भारत सरकार को अब तक की सबसे बड़ी आय हुई है। हाल ही में एक समाचार ये भी आया है कि भारत सरकार को इस बार आयकर के रूप में 456 लाख करोड़ रूपयों की आमदनी हुई है। प्रश्न यह है कि भारत का रहने वाला नागरिक क्या इसलिये कर चुकाता है कि वह पैसा देश के विकास की बजाय इन नेताओं की जेबों में जाये।

दरअसल, भारत के राजनेताओं ने चुनावों को अपनी सुरक्षा का हथियार बना लिया है। ये लोग पैसे के बल पर ही सत्ता प्राप्त करते हैं, और सत्ता में आने के बाद वही पैसा कमाने के लिए लोकतंत्र की कमियों का फायदा उठाते हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या लोकतंत्र का अर्थ जनता की आवाज को अनसुना करना ही होता है, क्या चुनावों का उत्सव इसलिये मनाया जाता है कि देश को जाति, वर्ग , भाषा में बांटकर सत्ता सुख की प्राप्ति की जा सके, और जिन मतदाताओं ने राजनीतिक दलों को सत्ता चलाने का अधिकार दिया है, उनकी आवाज को घोंट दिया जाए। आखिर वो कौनसी शिक्षा है जिसके चलते जो भी व्यक्ति जनप्रतिनिधि निर्वाचित हो जाता है, वह सदन में पहुंचते ही जनता के मुद्दों को गौण समझने लगता है और सत्ता को सर्वोच्च । आखिर कैसे जनप्रतिनिधियों को सदन में पहुँचते ही यह विशिष्ट योग्यता हासिल हो जाती है कि वे जनता की मांगों को शासक की अवज्ञा के रूप में लेने के लिये स्वतंत्र हो जाते हैं और शासन के प्रति अवज्ञा को कुचलने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इन राजनेताओं ने लोकतंत्र जैसे वरदान को अभिशाप में बदल दिया है, इसी कारण नागरिकों का एक बड़ा वर्ग मतदान के प्रति अरूचि व्यक्त करने लगा है।

पहले बाबा रामदेव और अब अन्ना हजारे को भ्रष्ट साबित करने में अपनी उर्जा को खपा रहे राजनीतिक दलों के राजनेता क्या यह साबित करना चाहते हैं कि जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलेगा, वे उस व्यक्ति को भी भ्रष्टाचार के दल दल में घसीट लेने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे । इसलिये जो भी व्यक्ति अपनी ईमानदारी को बचाकर रखना चाहते हैं वे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शब्द भी न बोलें। क्या यह माना जाए कि यह जनता को शासक वर्ग से मिल रही धमकी है ?

यह स्पष्ट रूप से समझे जाने की जरूरत है कि जो लोग अन्ना हजारे के समर्थन में सड़कों पर उतरे थे, वे केवल प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में शामिल करने की मांग पर नहीं आये थे। वे चाहते थे कि अन्ना हजारे भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों के खिलाफ होने वाले लोकतान्त्रिक आंदोलन के ठीक उसी प्रकार वाहक बनें जैसा कि जयप्रकाश नारायण ने 1975 में इंदिरा गांधी के अलोकतांत्रिक व्यवहार व सरकार के विरूद्ध किया था। लेकिन सत्ता में बैठे लोग अपने प्रभाव और पैसे के कारण भारत के नागरिकों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं।

अच्छा तो यह होता कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले राजनेता भ्रष्टाचार पर देश भर में चल रही बहस को देखते हुए इस मुद्दे पर संसद में बात करते, और जनता को यह विश्वास दिलाते कि भारत के राजनीतिक दल भी भ्रष्टाचार को जड़मूल से समाप्त करने के लिए कृतसंकल्पित हैं। प्रश्न यह है कि क्यों नहीं इस विषय पर सभी राजनीतिक दल अपने मतदाताओं को विश्वास दिलाने के लिये आमराय बनाते कि वे सब उस व्यवस्था को समाप्त करने के लिए संकल्पित हैं, जो भ्रष्टाचार की जननि है।

क्या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि भारत के नागरिक अवज्ञा पर उतर जायें और सरकारों को सभी प्रकार के कर देने से मना कर दें। क्यों नहीं भारत के तमाम राजनेता भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने का साहस दिखाते? या केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार पर एक श्वेत पत्र जारी करती जो भारत की जनता को यह बता सके कि सरकार की नजर में देश में भ्रष्टाचार की क्या स्थिति है ? या जनता को ही यह अधिकार देते कि वह अपने द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधि को वापस भी बुला सकती है।

स्व0 प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी जब नए नए प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने यह कहने का साहस दिखाया था कि केन्द्र सरकार से चला एक रूपया गांव तक आते आते 15 पैसा रह जाता है, ये बात अलग है कि बाद में उन्हीं राजीव गांधी पर बोफोर्स तोप के सौदे में दलाली खाने का आरोप लगा। उसी तरह का साहस स्व0 राजीव की पत्नी श्रीमती सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में चलने वाली मनमोहन सिंह की सरकार क्यों नहीं कर पा रही है? प्रश्न यह भी महत्वपूर्ण है कि श्रीमती सोनिया गांधी की ऐसी कौनसी दुविधा है, जो उन्हैं अपने स्व0 पति की व्यथा को दूर करने से रोक रही है। क्या यह माना जाए कि उनके मार्गदर्शन में चलने वाली सरकारों में हो रहे भ्रष्टाचार को उनकी स्वीकृति प्राप्त है?

जरूरत इस बात की है कि विभिन्न राज्यों में सत्ता का सुख भोग रहे और भोग चुके राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के बारे में अपने मत को स्पष्ट करें, इस मुद्दे उनकी टालमटोल की नीति का अर्थ यह लगाया जाएगा कि वे भ्रष्टाचार का समर्थन करते हैं और आज के हालात में भ्रष्टाचार को अपरिहांर्य मानते हैं। हमें यह याद रखना होगा कि इस देश ने सदियों से अपने उपर हुए आक्रमणों को झेलकर भी अपने आप को बचाए रखा है और जब आक्रमण घर के भीतर से ही हो रहा हो तो जनप्रतिक्रिया कैसी होगी इसके लिए राजनेता भारत का इतिहास एक बार फिर पढ़ लें। अब जवाब राजनेताओं को देना है, देश की जनता उनके निर्णय का इंतजार कर रही है।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं

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